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लखिया

लखिया रामनारायण पाठक की पुत्री थी. रामनारायण पाठक पेशेवर शिक्षक थे, पर लक्ष्मी की उसपर विशेष कृपा नहीं थी. परिवार के भरण-पोषण के बाद वे बमुश्किल ही कुछ जोड़ पाते थे. उसकी आमदनी तो वैसे दस हजार मासिक थी, लेकिन खर्च भी कम कहां था ? हाथ छोटा कर वह जो भी जोड़ता पत्नी की दवा-दारू में सब हवन हो जाता था. उसका परिवार बहुत बड़ा नहीं था. वे लोग गिने-चुने चार सदस्य थे – दो लड़कियां और अपने दो. बड़ी लड़की लखिया आठ वर्ष की थी और छोटी मित्रा पांच की. उसकी पत्नी भगवती खूब धरम-करम करती किंतु, अपने पेट की पीड़ा से वह पिछा नहीं छुड़ा पाती थी. पाठक जी ने उसके पेट की पीड़ा के लिए क्या नहीं किया, कई शहरों के नामी-गरामी डॉक्टरों से इलाज करवाए, लेकिन आजकल की बीमारियों पर तो आग लगे छुटने के नाम ही नहीं लेती ?
एक दिन अचानक रामनारायण पाठक दुनिया दारी से मुक्त होकर चिरस्थायी निद्रा में लीन हो गए. भगवती की दशा अब आगे नाथ न पिछे पगहा वाली हो गई थी. घर के मुखिया का इस तरह अचानक चल बसना अच्छे -अच्छों को भी तोड़ कर रख देता है और भगवती तो ठहरी सदा पेट की बीमारी से परेशान रहने वाली एक मरीज. अब उसे जीने की कोई इच्छा नहीं थी किंतु, अपनी बेटियों के लिए उसे जीना जरूरी था. वह जिन्दगी से भाग नहीं सकती थी. जीवन में सुरसा की तरह मुंह फैलाए खड़ी चुनौतियों से उसे जुझना ही था. उनसे आर-पार की लड़ाई लड़नी ही थी. उसे कृष्ण बनकर जीवन के इस रणभूमि में अपनी बेटियों का मार्गदर्शन करना था. आगे की चुनौतियों ने अपने पति के विषाद में डुबी भगवती को झकझोरकर उठा दिया था. उसे जल्द ही संभलने पर मजबूर कर दिया था. उसने भी मरते दम तक चुनौतियों से लड़ने का प्रण ले लिया था. आस-पास के छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर वह अपने जीवन की गाड़ी तिल-तिल आगे बढ़ाने लगी थी. अपनी दोनों बेटियों की परवरिश में उसने खुद को पूरी तरह समर्पित कर दिया था. कौन जाने किसका भाग्य में क्या लिखा है ?
लखिया बड़ी रूपसी थी और स्वभाव से उतनी ही चुलबुली भी. उसके अंग-अंग मानो सांचे में गढ़े गए हो. यौवन की दहलीज पर पांव रखते ही उसके रूप ने अद्भुत निखार ले लिया था. यौवन की मादकता आंखों में तिरछी चितवन बनकर, अधरों पर मधुर मुस्कान बनकर और बदन में आलस्य बनकर प्रकट होने लगी थी. उसने विश्व को मोह लेने वाला जगमोहिनी रूप पाई थी. गांव भर में वह सुन्दरता की मिसाल थी. वहां के लोगों को अपनी इस बिटिया पर फ़ख्र था.     
मिडिल पास कर अब वह हाई स्कूल में दाखिल हो गई थी. उसके मन में तरह-तरह के सपने पलने लगे थे. उसकी महत्वाकांक्षाएं लताओं की भांति डगडगाती हुई शिखर की ओर बढ़ने लगी थी. बचपन से ही उसपर जिन्दगी के कड़वे सच का दंश पड़ने लगा था. मुश्किलें इंसान को मजबूत बनाती है. पिता की मृत्यु के बाद लखिया को सिर्फ और सिर्फ परेशानियां ही नसीब हुई थी, जिसने कम उम्र में ही उसे काफी परिपक्व कर दिया था. वह खूब पढ़ना चाहती और आगे बढकर समाज के लिए कुछ करना चाहती थी, किंतु कभी-कभी घर की माली हालात उसे दुष्चिंता में डाल देती थी. उसका मन उदास हो जाता. सारे जोश, जुनून ठंडे पड़ जाते. किंतु, भगवती उसे सदा प्रोत्साहित करती रहती थी.
लखिया अब सयान हो गई थी. वह कॉलेज में दाखिला ले चुकी थी. उसका स्वभाव भी काफी बदल गया था. अब वह शर्मिली, संकोची और गंभीर स्वभाव की हो गई थी. सबसे नज़रे बचाती हुई वह कॉलेज आना-जाना करती थी. लोगों की कुदृष्टि का उसके मन में भय बना रहता था. वह एकदम पग-पग सचेत रहती थी. आए दिन देश-दुनिया में हो रही घटनाओं से भगवती का कलेजा कांप उठता था. बेटी को वह हमेशा सावधान करती रहती थी. दुनिया में कुछ लोग बड़े निर्मोही होते हैं. दूसरों की खुशी उनकी आंखों की किरकिरी बन जाती हैं. दूसरों के सुख-चैन लूटने में उन्हें वैसे ही आनन्द मिलता जैसे कसाई को निरीह पशुओं के कत्ल करने में मिलता है. खासकर लखिया जैसी खूबसूरत कलियों पर तो उनकी गिद्ध दृष्टि बनी रहती है. उनके रसीले जीभ लपलपाने लगते है. उनकी आंखों में हैवानियत का खून चढ़ आता है. वे अपना होशोहवास गंवा बैठते हैं और खिलने से पहले ही उस कली को अपने दरिंदे हाथों से मसल कर नष्ट कर देते हैं.
लखिया खूबसूरत थी. नवयुवकों का उसके प्रति आकर्षित होना तो स्वभाविक था. कॉलेज में कई लड़के उसके आगे पिछे मंडराते रहते थे. किंतु, उनकी नियत बुरी नहीं थी. उम्र का तकाजा था कि वे बस ऐसा स्वभाविक रूप से ही कर रहे थे. लखिया से उनकी नजरें टकरा गई या किसी बहाने उससे दो टूक बातें हो गई तो वे खुश हो जाते थे. गर्व से खुद की पीठ थपथपा लेते थे. लखिया को उन लड़कों से कोई भय नहीं था. उसे भय तो सिर्फ ललन से था. ललन बड़े बाप का बिगड़ेल औलाद था. दिन-रात वह अपनी ऐयासी में लगा रहता था. दुनिया की कोई ऐसी बुरी आदत शेष नहीं बची थी, जिसे उसने नहीं अपनाई हो. ड्रग से लेकर जुआ तक कुछ भी उससे अछूता नहीं था. उसका बाप धुरंधर सिंह भी कुछ वैसा ही दबंग किस्म का आदमी था. वह उस इलाके में कोयला माफिया का डॉन था. वहां की पुलिस भी उसके द्वार पर हाजिरी देने जाता था. उसकी करतूतों से जन-जन परिचित था किंतु, किसी के पास उसके विरूद्ध मुंह खोलने की ताकत नहीं थी. उसके विरूद्ध जाने वालों को वे सीधे उठवा देते थे.
ललन उसी कॉलेज में पढ़ता, जहां लखिया पढ़ती थी. बाप का ही पानी बेटा ने भी लिया था. अभी से ही बाप की तरह उसने भी दबंगाई शुरु कर दी थी. कॉलेज आना-जाना तो वैसे वह कम ही करता था. उसका ज्यादा समय तो घर और कॉलेज से बाहर ऐयासी करने में ही बितता था. किंतु, वह जब भी कॉलेज आता वहां हड़कंप मच जाता था. वहां की लड़कियां इधर-उधर छिपती फिरती और भय से कोई भी उसके सम्मुख नहीं आती थी. किसी लड़की पर अगर उसकी बुरी नजर पड़ गई तो फिर उसकी खैर नहीं. उसकी इज्जत-आबरू बच नहीं पाती थी. कॉलेज की कई लड़कियां उसके हवश का शिकार हो चुकी थी. उसके खिलाफ पुलिस, थाने सब कुछ हुआ था लेकिन, ढाक के वही तीन पात. आजतक उसे कोई सजा नहीं दिलवा पाया था. उसकी बुरी नजरों से बच कर रहने में ही सबको बुद्धिमानी लगती थी.
एक दिन अचानक लखिया का ललन से सामना हो गया था. वह कॉलेज से बाहर निकल ही रही थी कि अचानक कॉलेज के प्रवेश द्वार पर उसे अपने दोस्तों के साथ आता हुआ ललन मिल गया. वह डरी सहमी सिर झुकाए, किताबों को सिने से लगाए आहिस्ता-आहिस्ता आगे निकल गई थी. शुक्र था कि उसने लखिया को सिर्फ घुरकर देखा ही था. उसने ना किसी तरह की रोक-टोक की और ना ही उसके साथ कोई बदतमिजी की. वर्ना उसकी आदत इतनी अच्छी कहां थी ! वह तो लड़कियों को सीधे छेड़ना शुरू कर देता था. बदतमिजी पर उतर आता था.
लखिया सुन्दर थी इसीलिए वह ललन को पहली नज़र में ही भा गई थी. उसके दिल के किसी कोने में उसने कम्पन्न पैदा कर दिया था. धीरे-धीरे वह लखिया का आशिक़ बन गया. ये प्यार-व्यार भी क्या चीज है आज तक किसी को समझ नहीं आया है. इसकी ना कोई परिभाषा है, ना रूप, ना रंग, ना गंध. ढाई अक्षर के इस शब्द में ही सारा जादू समाया हुआ है, जिसने ना जाने कितने को मजनू, रांझा और फरहाद बना डाला है. आज उसी जादू के भंवर में एक और हलाल हो गया था. ललन का वैसे ही ज्यादातर समय सुन्दर-सुन्दर लड़कियों की बाहों में ही गुजरता था किंतु, उनमें से किसी से उसे प्यार नहीं हुआ. उसके दिल की गाड़ी गांव की भोली-भाली निर्दोष बाला लखिया पर जा अटकी थी. दोनों के बीच कितनी असमानताएं थी. ललन जहां बुराइयों के कीचड़ से लथपथ था, वहीं लखिया मानसरोवर में खिले कमल की ताजी पंखुड़ियों सी निर्मल. ललन निष्ठुर पाषाण दिल था तो लखिया शरदकाल के अलसाई सुबह में दूब के ऊपर पड़ी ओस की बूंद की तरह कोमल.
“साले जो भी हो किंतु, लखिया है बड़ी सुन्दर” – एकदिन ललन ने बातचीत के दौरान अपने दोस्तों से कहा.
कौन लखिया ? – उसके दोस्तों ने हैरानी से पूछा.
वही नई लड़की, डरी सहमी-सी नज़रे झुकाए चलने वाली. – ललन ने शब्दों के अनुरूप अपना सर हिलाते हुए कहा.
उसके दोस्तों को बड़ा आश्चर्य हुआ. आजतक उसने किसी भी लड़की को उसका नाम लेकर संबोधित नहीं किया था. उसके जुबान पर लड़कियों के लिए बस ‘लौंडिया’ शब्द ही आता था. लड़कियों के प्रति ना उसका कोई सम्मान था और ना ही इज्जत. उन्हें केवल वह उपभोग की वस्तु मानता था. किंतु, आज अचानक लखिया के लिए उसके मन में सम्मान देखकर उनके दोस्तों को हैरानी हुई.
क्यों आपको उसका नाम कैसे पता ? – एक दोस्त ने पूछा.
ललन मुस्कराते हुए बोला – मैंने उसकी बायोग्राफी पता कर ली है. वह बिसनपुर के स्वर्गवासी शिक्षक रामनारायण पाठक की बेटी है. ईमानदारी के क्षेत्र में उसके पिताजी का काफी नाम था. पापा बता रहे थे कि एक बार उसके साथ पापा का भी पंगा हो गया था. वह पापा को अंदर करवाने की धमकियां भी दे गया था किंतु, किस्मत से वह खुद ही ऊपर चला गया था, वर्ना पापा को ही अपना हाथ गंदा करना पड़ता.
तो तू उसपर इतना हमदर्दी क्यों जता रहा है ? – दूसरे दोस्त ने पूछा.
एक्चुअली वह मुझे बहुत प्यारी लगती है. उसे देखते ही मेरे दिल में कुछ-कुछ होने लगता है. – ललन ने कहा.
तब बताओ. कब तुम्हारी सेवा में उसे हाजिर करूं ? – तीसरे दोस्त ने कहा.
नहीं....नहीं उसके साथ मैं ऐसा नहीं कर सकता. उसे दुख होगा. मैं तो उसे दिल की रानी बनाना चाहता हूं. उसका सच्चा प्यार पाना चाहता हूं. उसके मन को जीतना चाहता हूं. तुमलोग उसके साथ कोई बदतमीजी मत करना – ललन ने सभी को चेताया.

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