बेंगलुरु में 1 जनवरी को घटी घटना से मैं बेहद आहत हूँ । सीसीटीवी केमरे के उस छेड़खानी दृश्य को देखकर मेरा खून तो नहीं खोल रहा है, मगर उसने मुझे अपनी सभ्यता, संस्कृति और बीमार मानसिकता पर गहराई से सोचने पर विवश जरूर किया है । मेरा खून इस बार इसलिए नहीं खोल रहा है क्योंकि मैंने जबरन इसे खोलने से रोका है, और इसे रोकना भी मुझे युक्तिसंगत लगा । दिल्ली के निर्भया कांड के वक्त भी मेरा खून खूब खोला था । मेरे जैसे कई नैजवानों, एवं संवेदनशील व्यक्तियों ने मिलकर, वहां केंडल मार्च निकाला था। सरकार और प्रशासन दोनों एकाएक, हरकत में आ गई थी । आरोपियों को सलाखों के पीछे डाल दिया गया । उन्हें सजा भी सुना दी गई । मगर क्या लड़कियों अथवा महिलाओं के साथ होनेवाली बलात्कार और छेड़खानी जैसी कुत्सित घटनाएं बंद हो गई ? नहीं, आज भी किसी सुनसान गली, मुहल्ले और बीच सड़कों में आए दिन ऐसी घटनाएं घटती रहती है । हर बार खून खोलता है मगर क्या इससे समाज बदल रहा है । समाज की मानसिकता बदल रही है ? केंडल मार्च को देखकर क्या हैवानियत की बीमार मानसिकता रखने वाले उन दरिंन्दों की आत्मा पसीजती है ? उन्हें अपने किए कराए पर पछताव...
Comments
Post a Comment