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कुछ यूँ ही

दुनिया में एक  घटना  अजीब की होती है जो वर्षों बीत जाने पर भी हमारी यादों की पटरी  से नहीं उतरती. दिन, महीने  कई  वर्ष गुजर जाने पर भी वह दिल के सबसे सुरक्षित भाग में संजीवनी  बूटी की तरह सदैव अपनी चिरकालीन हरियाली के साथ लहलहाती रहती है। वह घटना केवल हमारे और आपके साथ ही घटित नहीं होती बल्कि यह घटना तो हर किसी के साथ घटित होती है। कोई उसे सँजोकर अपने दिल की विरासत बना लेते हैं तो कोई उसे भूल जाने का भरपूर स्वांग रचते हैं ,  पर दिल की बात तो दिल ही जाने। मेरे साथ यह घटना उस वक्त घटी थी जब मैं 12वीं में पढ़ता था। उस वक्त तक मैं पूर्ण अक्षत था। अक्षत शब्द का दायरा बहुत बड़ा है इसीलिए इस शब्द का प्रयोग मैं यहाँ अपनी मानसिक अवस्था के संदर्भ में कर रहा हूँ। आप इसका गलत अर्थ मत लगा लेना। इस घटना को मैं अजीब इसीलिए भी कहता हूँ क्योंकि यह बिना तैयारी की अचानक घट जाती है और चिरंजीवी बनकर हमारे दिल के एक भाग को हमेशा हमेशा के लिए रिजर्व कर लेती है. उस दिन मेरे दोस्त कृष्णा के बड़े भाई के तिलक की रस्म थी । दोस्त का घर मेरे पड़ोस में ही था। मैं नियत समय पर शाम क...

वाह रे मानव !

“वाह रे मानव ! सभ्य मानव ! संवेदनशील मानव ! देख ली तेरी खोखली मानवता ! अब ये मत कहना कि अभी भी तुम्हारे पास ही इस प्लानेट का सर्वोच्च प्राणी कहलाने का ताज बना रहेगा । अगर जरा भी शर्म हया है तेरे अन्दर तो सर्वोच्चता के इस खोखले ताज को पावन गंगा में प्रवाहित कर हम जैसे करोडों निर्वस्त्र प्राणियों के संगत में पूर्ण निर्वस्त्र होकर चले आना मानवता का पाठ पढ़ने।” – यह कथन किस महापुरुष का है क्या आप बता सकते हैं ?.............................. छोड़ ही दीजिए, किताबों के पन्ने पलटते- पलटते आपकी सारी उम्र खप जाएगी फिर भी आप बता नहीं पाएंगे । पता है क्यों ? ....... क्योंकि यह कथन किसी महापुरुष का नहीं बल्कि उस कुत्ते का है जो 1 जनवरी को बेंगलोर की उसी गली में सुस्ता रहा था जहां सामने से नववर्ष का जश्न मनाकर लौट रही एक निर्दोष बाला को दो निकृष्ट कामान्ध सिरफिरे ने अपने कामुख पंजों से नोच खसोट कर अपने अंदर छिपे क्रूर पाश्विकता का परिचय दिया था । जल्द ही आपके समक्ष इस दृश्य पर अंदर से झकझोर देने वाली कहानी लेकर आऊंगा ।