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अपना फ़र्ज



अपना फ़र्ज
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वसंत कुंज सोसाइटी में कृष्णजन्माष्टमी के अवसर पर एक भव्य सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया गया था। जिसमें मशहूर गायक अभिनव चंचल आ रहे थे। हर जगह उनका पोस्टर लगा दिया गया था। अभिनव चंचल गायन के क्षेत्र में एक नामी गरामी हस्ती माना जाता है। भक्ति संगीत के साथ साथ उन्होंने बॉलीवुड के कई प्रसिद्ध फिल्मी गानों में भी अपना स्वर दे चुका है। एक ओर युवावर्ग उनके फिल्मी गानों के मुरीद हैं तो वहीं दूसरी ओर उनके धार्मिक गीतों और भजनों ने वैसे लोगों को मंत्र – मुग्ध कर रखा है, जो जरा आध्यात्मिक किस्म के हैं। इसमें बच्चे से लेकर वृद्ध वर्ग तक के लोग शामिल हैं । 
रत्नावली आज तड़के सुबह उठ गई और नहा धोकर पूजा में बैठ गई । दामोदर प्रसाद को भी नींद नहीं आ रही थी किंतु, फिर भी बिस्तर पकड़े हुए थे । दो-चार दिनों से उनके घुटनों का दर्द जरा बढ़-सा गया था, और अन्दर ही अन्दर हल्की कंपकपी का अनुभव हो रहा था । थोड़ा चल फिर लेता तो सांस फूलने लगती । इसकी वजह कोई खास बीमारी तो नहीं थी किंतु, सबसे बड़ी बीमारी उसका बुढ़ापा था ।
दामोदर प्रसाद बहत्तर साल के हो चुके हैं, जो करीब पाँच वर्षों से अपनी पत्नी रत्नावली के साथ हरिद्वार के वसंत कुंज सोसाइटी के ठीक बगल में पांच एकड़ जमीन में फैला हुआ गंगाधाम वृद्धाश्रम में अपने जीवन के शेष बचे कुछ वर्षों की आखिरी पारी निहायत चैन से गुजार रहें हैं । जीवन की आखिरी अवस्था में उन्हें इतनी शांति, इतनी शांति मिल गई थी कि कभी-कभी तो उसे इस शांति से ही विरक्ति हो जाती । पिछला सारा जीवन भाग – दौड़ में ही बीता, उस वक्त तो मन में बस यही ख्याल आता कि काश ! थोड़ी शांति मिल पाती तो जीवन का सारा आनन्द मिल जाता । और आज जब जीवन में सर्वत्र शांति ही शांति बिखरी पड़ी है तो मन थोड़ी हलचल के लिए मचल उठता है । यही तो विडम्बना है मानव जाति की, जो चीज उनके पास मौजूद होती है, चाहे वह कितनी भी बेशकीमती क्यों न हो उन्हें तरजीह नहीं दिया जाता है और जब वह हाथ से निकल जाती तब उसके महत्व का पता लगता है । दामोदर प्रसाद के साथ भी तो यही हो रहा था ।
कुछ महीनों से उसने अनुभव किया है कि पत्नि रत्ना फिर वही पुरानी वाली रत्नावली बनने की कोशिश कर रही है, जो वह शादी से पहले हुआ करती थी और शायद शादी के कुछ महीनों बाद तक भी । खुद को वह बदलने का हर जतन कर रही है । उसका मन एक बार फिर धर्म कर्म की ओर मुखर हो गया है । वह अब नियमित रूप से सुबह नहा धोकर पूजा पाठ करने लगी है । उसके पहनावे, व्यवहार और बातचीत में भी फर्क साफ नज़र आने लगा है । मन का बदलाव भी दिखने लगा है । अब हर वक्त मन उदास रहता है । ऐसा जान पड़ता कि कोई दर्द या पीड़ा उसके मन में गहराई तक जड़ जमा बैठी है जिसे वह ना किसी से शेयर करती और ना ही उससे छुटकारा पाने की कोशिश करती । कई बार दामोदर उससे पूछ भी चुका है कि आखिर बात क्या है ? वह कुछ भी तो नहीं कहकर बात टाल जाती है ।
वैसे तो रत्नावली ने मिडिल स्कूल तक की पढ़ाई की थी । उसकी पढ़ाई अब भी जारी थी कि एक दिन उसकी शादी का प्रस्ताव एक उच्च घराने से आ गया । लड़का भी वेल सेटल्ड था । परिवार छोटा था और समाज में रुतबा बहुत बड़ा । नाते - रिश्तेदारों का सलाह मानकर घरवालों ने उसकी शादी कर दी । वह उच्च घराने की बहू बनकर हँसी खुशी चली आई । ससुराल का माहौल अपने मायके के माहौल से बिल्कुल भिन्न था । यहां लोगों का अधिकांश समय पार्टियों, क्लबों, सिनेमाघरों और पत्ते खेलने में बीतता था । पूजा पाठ का माहौल घर में किसी पर्व त्योहार के अवसर पर ही बन पाता था वो भी बस औपचारिकता भर का । वहां के लोगों का धर्म कर्म से ना ज्यादा लगाव था और ना ही पूजा पाठ में विशेष दिलचस्पी । शुरू शुरू में उसे ये सब बहुत अजीब लग रहा था । मायके में वह सुबह उठती और नहा धोकर पूजा पाठ करने के बाद ही मुंह में अन्न डालती और कोई दूसरा काम आरम्भ करती, पर यहां ऐसी आदत तो किसी की भी नहीं थी । औरतें तो सुबह नौ दस बजे सोकर उठती, जब उनके मर्द ऑफिस चल गए होते । उन्हें रोकने टोकने वाला कोई नहीं होता, अपनी मर्जी की जिन्दगी जीती, एकदम बेफिक्री वाली जिन्दगी । ऐसी जिन्दगी को तो उसने सिर्फ सिनेमाओं में ही देखी थी किंतु, अब सचमुच में वही जिन्दगी उसके सामने अपनी बाहें फैलाए उसे अपनी आगोश में भर लेने के लिए तैयार थी । दो चार महीने बाद रत्नावली बदलकर रत्ना हो गई । ससुरालवालों की रोक टोक के साथ वह पूरी तरह बदल गई । अपने मायके के सभी नियम कायदे भूलाकर वह ससुराल के रंग में पूरी तरह रंग गई । अब उसे यहां कुछ भी अजीब नहीं लगता । वह भी वही सब करने लगी जो घर की बाकि औरतें करती थीं ।
अब वह पूजा से उठी और भागवान को चढ़ाए गए भोग की थाली लेकर पति की ओर आगे बढ़ी किंतु, दामोदर प्रसाद अभी तक बिस्तर पर ही पड़े हुए थे ।
रत्नावली अपनी शांत और मधुर आवाज में बोली – “आप अभी तक नहा धोकर तैयार नहीं हुए हैं ?”
दामोदर तैयार होने की बात सुनकर पूछ बैठा – “क्यों कहीं जाना है क्या ?”  
रत्नावली – “हाँ, आपको बताया नहीं था क्या ? आज कृष्णजन्माष्टमी है । मंदिर जाकर हम पूजा कर आएंगे।”
दामोदर – “मुझे तो नहीं बताई थी।”  
रत्नावली पछताते हुए – “ओह ! लगता है अब मुझे भी विस्मृति का रोग लग गया है । जरूरी बातें अब भूलने लगी हूँ।”  
दामोदर दिलासा देते हुए बोला – “चलो कोई बात नहीं, मैं अभी तैयार होकर आता हूं । लगता है आज भी घुटनों का दर्द सताएगा।”  
रत्नावली अपनापन के साथ बोली – “खूब दर्द हो रहा है क्या ? तब मंदिर जाने छोड़ देती हूँ, वैसे तो मैंने घर में पूजा कर ली है।”   
दामोदर – “नहीं नहीं उतना भी दर्द नहीं है, अभी मैं आया।” - कहकर वह बाथरूम चला गया । 
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शाम सात बजे का वक्त था । वसंत कुंज सोसाइटी के आउटडोर स्टेडियम में बनाए गए पंडाल में लगी सभी कुर्सियां भर गई थी । इसके अलावा बहुत सारे लोग पंडाल के किनारे किनारे खड़े भी थे । पत्नी की जिद्द के कारण ही दामोदर वहां गया था नहीं तो ऐसे कार्यक्रमों में उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी । वहां कुछ ही देर बाद मशहूर गायक अभिनव चंचल का कार्यक्रम शुरु होने वाला था । उनके द्वारा गाए हुए भजनों को रत्नावली बहुत चाव से सुना करती थी । और आज जब बगल में ही उसका लाइव कार्यक्रम होने की खबर उसे मिली तो वह यहां आने के लिए मचल उठी । दामोदर भी ना नहीं कर पाए । और चला आया ।
पंडाल के एक किनारे दोनों जने जाकर खड़े हो गए । बगल की कुर्सी पर बैठे एक नवयुवक अपने शिष्टाचार का परिचय देते हुए अपने एक और साथी के साथ उठ खड़ा हुआ और उन्हें अपनी कुर्सियां बैठने के लिए ऑफर कर दी । दोनों ने कृतज्ञता जताते हुए अपनी अपनी कुर्सी थाम ली ।
कुछ ही देर में वहां कोलाहल तेज हो गया । सभी लोग मंच की ओर टकटकी लगाकर देखने लगे । शायद अभिनव चंचल वहां आ पहुंचे थे । उसी समय माइक से अनाउंस हुआ – “आज के मुख्य कलाकार जिसके लिए आप सभी दिल थामकर बैठे हैं मशहूर गायक श्री अभिनव चंचल जी हमारे बीच पधार चुके हैं । और शीघ्र ही वे अपनी परम पूजनीया माताजी के साथ मंच पर सिरकत करने वाले हैं । आप सभी से अनुरोध है कि अपनी अपनी जगह पर शांति बनाए रखें, धन्यवाद।”  
अभिनव चंचल का मंच पर कदम पड़ते ही एक जोरदार कोलाहल और अतिशय आनन्द के कारण लोगों के मुख से निकली हर्षित ध्वनि से वहां का आसमान गूँज उठा । उनकी झलक पाकर लोग खुशी से झूम उठे । युवाओं की टोली मुख से सिटियां बजा बजाकर आनन्द लेने लगे । उनके लिए आनन्द केवल आनन्द का विषय है; क्योंकि आर्केस्ट्रा के समय जब कमसिन बालाएं अपनी कमर लचकाकर मंच पर ठुमके लगाती हैं तब भी वे वैसी ही सिटियां बजाते हैं और आज भी जब नरेन्द्र चंचल अपनी भक्ति गीतों के साथ मंच पर उपस्थित हैं ।
अभिनव चंचल ने अपनी सुरिली आवाज में सर्वप्रथम ईश वंदना की । तत्पश्चात एक संक्षिप्त परिचय के साथ उन्होंने मंच पर दाईं ओर लगी सिंहासननुमा कुर्सी पर बैठी अपनी वृद्ध माँ को शीश झुकाकर नमन किया, सभी का अभिवादन किया और “कान्हा की वंशी की धुन पर गोपिया हुई बावरी नाचे छम छम...............!” गीत के साथ पूरा शमां बांध दिया । सभी उनके गीतों पर भावविभोर होकर झूमने लगे सिवाय दामोदर और उसकी पत्नी को छोड़कर । उनदोनों ने एक दूसरे को इस प्रकार आश्चर्य से देखा मानो उनकी आंखों के सामने कुछ ऐसा घटित हुआ हो जिसकी उन्होंने कभी कल्पना ही नहीं की होगी ।
हां, कुछ ऐसा ही घटित हुआ था । अभिनव चंचल उसी चंद्री का बेटा था जिसने लगभग बीस वर्षों तक उनकी सेवा की थी और आज वह एक आदरणीय पात्र के रूप में मंच पर गर्वोन्नत होकर विराजमान थीं । उसके मुखमंडल पर अपार सुकून का भाव स्पष्ट देखा जा सकता था । ना किसी से कोई शिकवा ना शिकायत । ईश्वर से उन्होंने जो कुछ कामना की होगी उससे कहीं ज्यादा ईश्वर ने उसकी झोली में डाल दिया था ।
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दामोदर प्रसाद को भलीभांति याद है जब उसका तबादला अपने शहर दिल्ली से दूर भोपाल में हो गया था । न चाहकर भी अपनी नौकरी बचाने के लिए उसे भोपाल पत्नी सहित जाना पड़ा था । जो अबतक अपने पूरखों के आलीशान बंगला में ऐशोआराम की जिन्दगी बिताता आ रहा था अचानक किराए के घर में सबकुछ नए सिरे से आरम्भ करना पड़ा । शुक्र था कि उन्हें चन्द्री जैसी बाई किराए के मकान में शिफ़्ट होने के दो दिन बाद ही मिल गई । चंद्री ने उस घर को अपना घर समझकर सारे घरेलू कार्यों को अपने जिम्मा ले लिया । रत्नावली एक बार फिर घरेलू कामों की चक्की में पिसने से बच गई ।
चंद्री की उम्र उस वक्त तीस की रही होगी। कई कामनाओं और मन्नतों के बाद उसे एक बेटा हुआ और साल भर बाद एक सड़क दुर्घटना में उसके पति का देहांत हो गया । चंद्री मझधार में फंस गई । लोगों ने उसे दूसरे घर बियाह कर चली जाने की नसीहत दी । किंतु अपने नन्हे से बेटे के मासूम चेहरे को देखकर वह विकल हो उठती । दुनिया में कौन ऐसा उदार दिल सौतेला बाप होगा जो पराए खून को भी अपना खून मानकर उसे वही लाड प्यार देगा जिसका वह हकदार है । चंद्री को दुनिया उतनी भी रहमदिल नहीं लगी इसीलिए उसने निश्चय कर लिया कि वह अपने इस मासूम के सहारे ही जीवन में आनेवाली हर आंधी-तूफानों का सामना करेगी ।
दामोदर प्रसाद के घर काम मिलते ही उसने जीवन की इस मध्यम बेला में मिली अपूरित पीड़ा को मात देने के लिए खुद को उस परिवार की सेवा शुश्रूषा में तन-मन से समर्पित कर दिया । बदले में दामोदर परिवार ने भी उसे वैसा ही मान-सम्मान दिया, जैसा उसे मिलना चाहिए । उस घर में उसकी हैशियत परिवार के किसी सदस्य से कम नहीं थी । दामोदर परिवार ने कभी इस बात का उसे इल्म भी नहीं होने दिया कि वह उस घर की बाई है। दोनों को एक दूसरे पर पूर्ण भरोसा था ।
रत्नावली जब माँ बनीं तो चन्द्री ने उसकी इतनी देखभाल और सेवा सत्कार की कि वैसा एक सगी माँ भी नहीं कर सकती थी । उसके नहाने-धोने से लेकर खाने-पीने तक का हर ख्याल रखती । रात-दिन वह उसकी सेवा में लगी रहती । उसकी इस सेवा भाव और अपनापन ने उसे रत्नावली का काफी करीब ले आया ।
इसी तरह चार-पांच साल बीत गया । चंद्री का बेटा भी अब स्कूल जाने लायक हो गया था । उसकी दिली तमन्ना थी कि वह अपने बेटे को पढ़ाएगी-लिखाएगी और इस कदर परवरिश करेगी कि उसे कभी अपने पिता की कमी महसूस न होने पाए । उसके पति की भी यही इच्छा थी कि उसका बेटा पढ़-लिखकर एक दिन खूब बड़ा आदमी बने। उन्होंने एक बार बातों ही बातों में चन्द्री से कहा था – चंद्रिका ! मैं दुनिया की नजर में अनपढ़ जरूर हूँ किंतु, मेरी आत्मा अनपढ़ नहीं है । विकट परिस्थितियों ने मुझे अनपढ़ रखा है किंतु, मैं अपने बेटे को इतना पढ़ाऊंगा इतना पढ़ाऊंगा कि सारी दुनिया उसपर नाज करेगी ।  
पति की उस बात को याद कर अक्सर वह सिसक पड़ती थी । बेटा बड़ा हो रहा था । धीरे-धीरे वह अपनी माँ के दिल में दबे हुए दर्द को आभास करने लगा । मां को हर वक्त चंद पैसों के लिए इधर-उधर भागते देखकर उसने एक दिन अपनी माँ से कहा – माँ ! अब मैं बड़ा हो गया हूँ । रजना, बिट्टू, लल्टू सब काम करने जाता है और ढ़ेर सारे रूपये कमाकर लाता है । मैं भी उनलोगों के साथ काम पे जाऊंगा और खूब पैसे कमा कर लाऊंगा । फिर तुम्हें भी लोगों के घर काम करने की जरूरत नहीं होगी ।
माँ ने उसे फटकार लगाते हुए कहा – बेकार की चीजों में तुम ध्यान मत दो । मन लगाकर अपनी पढ़ाई पूरी करो और उसके बाद कमाने के बारे में सोचना ।
वहाँ माँ से उसने किसी प्रकार की बहस नहीं की किंतु, उसका मन अब भी स्थिर नहीं हो पा रहा था । माँ के कष्ट को उससे देखा नहीं जा रहा था | वह अपने आसपास के बाकि सथियों की तरह मेहनत मजदूरी कर रूपया कमाना चाहता और अपनी माँ की तंगहाली दूर करना चाहता था । किंतु, माँ की इच्छा के विरुद्ध भी वह नहीं जाना चाहता । बड़ी दुविधा थी मन में । इसी तरह अनमने तरीके से वह स्कूल जाता रहा, पढ़ाई से उसका मन भी उचट गया था । क्लास में हमेशा अब्बल आनेवाला अभिनव लगातार पिछड़ने लगा ।   
उस दिन वह कुछ बच्चों के साथ बिट-बिट (एक प्रकार का खेल, जिसमें प्रतिद्वद्वि के गेंदों की मार से बचकर पत्थर के टुकड़ों को एक दूसरे पर चढ़ाया जाता है) खेल रहा था । वहीं कुछ दूरी पर बने चबूतरे पर कुछ औरतों का जमावड़ा था । वे आपस में गप्पे लड़ा रहीं थीं । अभिनव बेफिक्र अपने खेल में रमा हुआ था, अचानक उनलोगों की बातचीत में अपनी माँ चन्द्री का प्रसंग आते ही उसका कान जरा सतर्क हो गया । उन औरतों की बातचीत को वह ध्यानपूर्वक सुनने लगा । महिलाओं की उस समूह में एक अधेड़ उम्र की महिला बोली – “बेचारी पाई पाई के लिए दर दर भटकती है और ये बाबू साहब बनकर स्कूल जाता, खेलने कूदने में मस्त रहता । इसकी उमर के बाकी लड़के तो रूपयों की गड्डी कमाकर लाते हैं । ऐसा निठल्ला औलाद के लिए बेकार ही उसने अपनी जिन्दगी कुर्बान कर दी । भला होता हमारी बात मानकर किसी मर्द का दामन थाम लेती । अभी भी ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ा है हमारी बात मान ले तो कोई ना कोई अधेड़ उसे मिल ही जाएगा । किंतु अपने बेटे पर इतना गुमान लिए बैठी है जैसे उसको पढ़ा-लिखाकर साहब ही बना देगी ।”  इसके अलावा भी उसके बारे में कई बातें हुई होगी जिन्हें वह सुन नहीं पाया था । किंतु, उसे झकझोरने के लिए ये बातें ही उसके लिए काफी थी । वह धीरे-धीरे वहां से किनारे हो गया । दोस्तों को पेट दर्द का बहाना बनाकर चुपके से वह वहाँ से घिसक लिया।
घर आकर उसने माँ से कहा – “माँ ! कल से मैं स्कूल नहीं जाऊंगा।” - और सीधे बिस्तर पर जाकर औंधे मुँह लेट गया । अंदर ही अंदर वह कलप रहा था । आंसूओं से बिस्तर भींग रहा था । चंद्री किचन में उसके लिए पकोड़े बना रही थी । उसके हाथ में बेसन लगा हुआ था । उसने झटपट हाथ धोया और तेजी से उस कमरे के अंदर गई जहां अब भी अभिनव सिसकियाँ ले लेकर रो रहा था ।
उसके सिर पर हाथ फेरती हुई बड़ी दुलार से बोली – “अचानक तुम्हें क्या हुआ मेरे सोना ? और रो क्यों रहे हो ? किसी से लड़ाई करके आए हो क्या ? या किसी ने कुछ कहा है तुझे ?
अभिनव ने रोते रोते अपनी माँ को सारा वृतांत कह सुनाया । चंद्री को उस लेडी (पड़ोस की मुंहबोली बुआ, जिसने अभिनव के सामने यह बात कही थी) पर खूब गुस्सा आया, किन्तु अभी गुस्सा दिखाने और दुनिया से इस बात को लेकर उलझने का सही वक्त नहीं था। गम खाने में ही भलाई थी। वह आँसू के घूंट पीकर रह गई। बेटा के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली – “बेटा ! दुनिया की यही रीत है। लोग हमेशा खुद को दूसरों से आगे देखना चाहते हैं। इसके लिए कुछ लोग अपनी मेहनत से आगे बढ़ते हैं तो कुछ आगे बढ़ने वालों को पीछे की ओर खींचकर आगे रहने की कोशिश करते हैं। वे लोग जानबूझ कर तुम्हारे सामने ऐसी बातें करते हैं ताकि तुम गुस्सा के मारे अपनी पढ़ाई छोड़ दो और उनके बच्चों की तरह काम धाम कर जिंदगी में गंवार बने रहो। वे अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा नहीं पाए इसीलिए उन्हें तुमसे ईर्ष्या होती है । तुम्हें आगे बढने से रोकना चाहती है।”
माँ की बातें सुनकर अभिनव का मन जोश से भर उठा । उसने आंखों से गालों पर लुढ़क आए आंसू को हथेली से पोंछ डाला ।
माँ की बातें जारी थी – “जानते हो तुम्हारे पापा पढ़े-लिखे नहीं थे । अपने अनपढ़ होने का उन्हें खूब मलाल था । वे अक्सर कहा करते थे कि अगर उनके माता-पिता ने थोड़ी सी हिम्मत दिखाई होती तो उसे जिन्दगी भर अनपढ़ गंवार बनकर नहीं रहना पड़ता । बड़े घराने के बच्चों को स्कूल जाते हुए देखते तो उनका मन भी स्कूल जाने के लिए मचल उठता । एक बार उसने अपनी मां से स्कूल जाने की बात की तो उनके पिताजी ने शराब के नशे में उसकी खूब पिटाई कर दी । उसके बाद फिर दोबारा कभी स्कूल जाने के बारे में सोचने की भी उनकी हिम्मत नहीं हुई । वे अक्सर कहा करते थे कि स्कूल एक मंदिर के समान है और वहां बच्चे जो भी ज्ञान अर्जित करते हैं जीवन के हर कदम में उसका काम आता है । जिस प्रकार अपने मन को पावन करने के लिए लोग मंदिर जाते हैं, उसी तरह अपने सम्पूर्ण जीवन को पावन करने के लिए हर बच्चे को स्कूल जाना चाहिए । उनके पास भले ही अक्षर ज्ञान नहीं था किंतु, व्यावहारिक ज्ञान का उनके पास अकूत भंडार था । और जानते हो तुम्हारे बारे में उन्होंने क्या कहा था ? एक्सीडेंट के कुछ दिन पहले ही उन्होंने तुम्हारे बारे में कहा था - चंद्रिका ! मैं दुनिया की नजर में अनपढ़ जरूर हूँ किंतु, मेरी आत्मा अनपढ़ नहीं है । विकट परिस्थितियों ने मुझे अनपढ़ रखा है किंतु, मैं अपने बेटे को इतना पढ़ाऊंगा इतना पढ़ाऊंगा कि सारी दुनिया उसपर नाज करेगी।” - और बोलते बोलते चंद्री एकबार फिर भावुक हो गई । उनकी आंखों से आंसू टपकने लगे ।
अभिनव मां की गोदी से उठकर उनके आंसू पोंछने लगा । मन ही मन उसने निश्चय कर लिया कि अपने पिता के सपने को वह हर हाल में पूरा कर दिखाएगा । अब वह किसी के बहकावे में नहीं आएगा । उसे अपने जीवन का लक्ष्य और वहां तक पहुंचने का रास्ता मिल गया था । मां की इन बातों ने उसे पूरी तरह बदल दिया था । उसने माँ की बाहों में हाथ डालकर कहा – “माँ ! अब मैं पढ़ाई छोड़ने की बात कभी नहीं करूंगा । पापा ने मेरे लिए जो सपने देखे थे उसे मैं हर हाल में पूरा कर दिखाऊंगा । पापा भले ही हमारे साथ नहीं हैं किंतु, उसकी आत्मा हमारे साथ है । मैं खुद को उस बुलंदी तक पहुंचा दूंगा कि पापा की आत्मा मुझपर नाज करेगी।”  
दूसरी ओर का दृश्य इससे बिलकुल उलट था। प्रसाद दंपति के यहाँ किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी। सुख सुविधा के सारे सामान आदेश मात्र से ही उपलब्ध हो जाते थे । उनका पुत्र मयंक बड़ा हो गया था, अब वह स्कूल जाने लगा था। रत्नावली ने भले ही मयंक को अपनी कोख से जन्म दी हो किंतु उसका लालन पालन तो चंद्री के हाथों ही हुआ था । चन्द्री अपने बेटे से कहीं ज्यादा मयंक पर अपनी ममता लूटाती थी। सुबह ही वह अपने बेटे के लिए घर में खाना तैयार कर मालिक के घर चली आती । यहां घर के सभी कामों को निपटाती, सबके लिए खाना तैयार करती, मयंक को नहलाती, स्कूल के लिए उसे तैयार करती, उसका टिफिन पैक करती, उसे लाड-प्यार देकर खाना खिलाती और फिर स्कूल छोड़ आती । छूट्टी होते ही उसे लेने स्कूल पहुंच जाती, उसे घर लाती और फिर खिला-पिलाकर उसे खेलाने लगती । यानी मयंक का समय जितना अपनी माँ के साथ नहीं बितता उससे कहीं ज्यादा चंद्री के साथ बितता था । उसे अपनी माँ से कहीं ज्यादा चंद्री का लाड़ प्यार मिला था। जब वह थोड़ा और बड़ा हुआ तो उसकी भविष्य की चिंता को ध्यान में रखकर उसे बड़े शहर में, बड़े स्कूल में, ऊंची शिक्षा प्राप्त करने के लिए हॉस्टल में रखा दिया गया। दिन बीतता गया और उसने अपने मुताबिक अपनी दुनिया का निर्माण कर लिया। अपने माँ-बाप की स्थिति का परवाह किए बगैर वह उस रंगीन दुनिया में अपनी गर्लफ्रेंड से हाल ही में कोर्ट मैरीज के द्वारा पत्नी बने श्रेया के साथ रहने लगा। 
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आखिरी गीत ‘माँ के चरणों में मिलल सब सुख, अब ना रहल स्वर्ग की कोन्हों भूख’ के साथ उन्होंने अपना कार्यक्रम सम्पन्न किया । तालियों की गूंज से एकबार फिर वहां का सारा आसमान गुंजायमान हो उठा । माइक छोड़ने से पहले अभिनव चंचल ने कहा – “आज मैं जिस मुकाम पर हूँ यह सब मेरी देवी तुल्य माँ की कठोर तपस्या का ही प्रतिफल है इसलिए उनके चरणों में खुद को समर्पित करता हूं । मैं खुद को उन भाग्यशाली संतानों में से एक समझता हूँ जिसे अपनी जननी के प्रति अपना फ़र्ज़ निभाने का अवसर प्राप्त हुआ है और यही मेरे लिए पूजा, यज्ञ और तपस्या है। साथ ही, मैं उस प्रसाद दम्पति का दिल से आभारी हूँ जिन्होंने बीस वर्षों तक मेरी माँ को अपने यहां सेवा का अवसर देकर उन्हें सहारा दिया । उस दम्पति से हमारी मुलाकात अब दोबारा हो पाएगी या नहीं यह तो विधाता ही जाने परंतु, वे जहां भी हैं उनके अहसान को मैं शत-शत नमन करता हूँ।” - कहकर उन्होंने माइक आयोजकों को सौंप दिया ।
उनके सम्मान में सारी भीड़ खड़ी हो गई । उस भींड़ को चिरते हुए दामोदर प्रसाद अपनी पत्नी का हाथ पकड़कर स्टेज की ओर आगे बढ़ने लगा । उस वक्त उसके अंदर इतना जोश आखिर कहां से आ गया था भगवान ही जाने परंतु वह भींड़ को किसी युवा की भांति धक्का देते हुए आगे बढ़ता जा रहा था । अभिनव स्वयं अपनी माँ को सहारा देकर स्टेज से नीचे उतरने लगा । दामोदर की व्यग्रता और बढती गई । वह हर हाल में चंद्री तक पहुंचना चाहता था । अबतक अभिनव चंचल अपनी माँ के साथ स्टेज से नीचे उतर चुका था । दामोदर प्रसाद भी अपनी पत्नी के साथ उनके करीब पहुंचने ही वाला था कि सुरक्षा में लगे सुरक्षाबलों ने उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया । वह उनलोगों से एकबार मिलने के लिए पुलिसवालों से गुहार लगाता रहा, किन्तु उनलोगों ने उन्हें आगे बढ़ने नहीं दिया। अभिनव चंचल अपनी माँ के साथ गाड़ी में सवार हुए ओर वहाँ से निकल गए। दामोदर प्रसाद वहीं खड़े होकर छलछलाती आँखों से उन्हें तबतक देखता रहा जबतक कि उनकी गाड़ी नजरों से ओझल नहीं हो गए। रत्नावली की आँखों से आँसू उनके झुर्रीदार गालों पर लुढ़क आए।          
         
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